लोक चित्रकला से आशय आम जनमानस द्वारा विशेष सुअवसर पर परंपरागत रूप से साधारण रूप के, चित्रों को भूमि, बर्तन, दीवार आदि पर उकेरने की कला लोक चित्र कला कहलाती हैं।
लोक चित्रकला संस्कृतिक परंपरा को अभिव्यक्त करती हैं। मध्य प्रदेश के लोक एवं आदिवासी अंचलों मे लोक चित्रकला के विभिन्न रूप प्रचलित है
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निमाड़ी लोक चित्रकला
निमाड़ क्षेत्र के लोकचित्र अपने अंकन के साथ-साथ कुछ विशेषताओं के लिए जाने जाते हैं । यहाँ का सर्वाधिक प्रचलित लोकचित्र “मॉडना है।
इसके अन्तर्गत विभिन्न पर्व, त्यौहारों विशेषकर दीपावली के अवसर पर घर के फर्श और दीवारों को गोबर एवं पीली मिट॒टी से लीपकर उस पर गेरू तथा सफेद खड़िया से कलात्मक ‘मांडने’ बनाये जाते हैं.। इसके अतिरिक्त जियैती (हरियाली अमावस्या) नागभित्तिचित्र (नाग पंचमी), सांजाफूली हुई (अश्विन, क्वार माह) नवरथ (नवरात्रि) दशहरा चित्रण आदि यहाँ के प्रचलित लोक चित्र है।
निमाड़ के भित्ति चित्रों की विशेषता है आकृतियों में आँखें बनाकर उनकी प्राण प्रतिष्ठा करना तथा उनका प्रागैतिहासिक आकृतियों के करीब होना।
मालवीय लोकचित्र कला
मालवा के लोकचित्रों में अधिकांश चित्र घर की महिलाएँ ही बनाती है। चितेरी जाति के द्वारा चित्रावण घर की बाहरी दीवारों तथा मंदिर की दीवारों पर किये जाते हैं।
इसमें बारात, बेंड बाजे, पालकी, घुड़सवार, हाथी पर दूल्हा-दुल्हन, गणेश, शंकर, पार्वती आदि के रंगीन चित्र उकेरे जाते हैं।
घर की महिलायें दीवारों और भूमि पर अनेक आकृतियाँ विशेष अवसर पर बनाती है। इनमें मॉडना’ सर्वाधिक लोकप्रिय है।
संजा पर्व पर ‘किशोरियाँ दीवार पर गोबर, फूल, पत्ती, चमकीली पत्तियों से 16 दिन तक विभिन्न आकृतियाँ बनाती है।
मालवा में मेहंदी का प्रचलन भी बहुत है, जिसमें हाथ, पैर पर विभिन्न आकृतियाँ बनाई जाती है।
इसके अतिरिक्त अबीर और गुलाल और सूखे रंगों से बनाई जाने
वाली रंगोली भी यहाँ लोकप्रिय है।
म.प्र. के मालवा क्षेत्र के अंतर्गत इंदौर, उज्जैन, देवास, सीहोर, रतलाम, मंदसौर, रायसेन आदि जिले सम्मिलित हैं।
मालवा में अधिकांश लोक चित्र घर की महिलाओं द्वारा बनाए जाते हैं। मालवा लोक चित्रकला के निम्नलिखित रूप प्रचलित हैं –
चित्रावण -ये चित्र चितेरे जाति द्वारा बनाए बाते हैं। जिसमें घर की दीवारों व मंदिरों की दीवारों पर बैंड-बाजे, पालकी, घुड़सवार, हाथी पर सवार दूल्हा-दुल्हन, पार्वती, गणेश एवं शिवजी के चित्र उकेरे जाते हैं।
माण्डने-दीवाली अथवा अन्य किसी मांगलिक अवसर पर घर की दीवारों व फर्श को गोबर व पीली मिट्टी से लीपकर गेरू व सफेद खड़िया मिट्टी द्वारा कलात्मक माण्डने बनाए जाते हैं।
रंगोली-किसी विशेष अवसर या उत्सव पर घर की महिलाएँ गुलाल अथवा सूखे रंगों से रंगोली बनाती है।
संजा की आकृतियाँ-दश्राद्ध पक्ष में कुंवारी कन्याएँ गोबर, फूल एवं पत्ती से घर की दीवारों पर संजा की आकृतियाँ बनाती है और उसकी पूजा करती है। 15वें दिन सर्व पितु अमावस्या को संजा की आकृतियों को किसी नदी या तालाब में विसर्जित किया जाता है।
मेंहदी की आकृतियाँ-मालवा क्षेत्र में मेंहदी का विशेष प्रचलन है। यहाँ पर विशेष अवसर के साथ-साथ सामान्य स्थिति में शरीर पर मेंहदी से विभिन्न आकृतियाँ बनाई जाती है।
गोंदने – शरीर पर गोंदने गुदवाने का भी मालवा क्षेत्र में प्रचलन है।
बुन्देली लोक चित्रकला
बुन्देली लोकचित्रों में चौक चित्र सर्वाधिक लोकप्रिय है | विशेष अवसर पर चौक चावल, गेंदूँ, ज्वार के आटे, कुमकुम आदि से उकेरे जाते हैं।
सुरैती का रेखांकन लक्ष्मी पूजन के अवसर पर किया जाता है। जिसमें जालीनुमा अंकन होता है। यह प्रतिकात्मक रूप से यहाँ का सर्वश्रेष्ठ लोकचित्र है।
नबरात्रि में कुँआरी कन्याएँ नवरता’ नामक भित्ती चित्र बनाती है। भोरतें विवाह के अवसर पर दीवारों में उकेरे जाते हैं।
बुन्देली चित्रों की प्रमुख विशेषता उनके रंग और रेखाओं की सूक्ष्मताएँ हैं।
सुरेती
यह बुंदेलखण्ड का पारम्परिक भित्ति चित्रण हैं। दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी पूजा के साथ सुरेती का रेखांकन महिलाओं द्वारा किया जाता है।
सुरेती का जालीनुमा अंकन बुन्देली महिलाओं की कल्पनाशीलता की कलात्मक परिणति है। इस चित्र में देवी लक्ष्मी की आकृति प्रमुखता से उकेरी जाती है।
वहीं भगवान विष्णु का आलेखन भी किया जाता है।
सुरेती का रेखांकन गेरू रंग से किया जाता है। पूजा के पश्चात् लक्ष्मीजी की कथा कही जाती है। |
सुरेती लोकचित्रकला की दृष्टि से बुन्देलखण्ड का सर्वश्रेष्ठ प्रतीकात्मक चित्र है।
चौक
बुन्देलखण्ड ने चौक बनाने की प्रथा सबसे अधिक एवं पुरानी है। जीवन में ऐसा कोई भी अवसर नहीं होता होगा जब चौक न पूजे जाते हो।
चौक चावल के आटे गेहूँ ज्वार के आटे, हल्दी, कुमकुम आदि से बनाए जाते हैं। कहीं-कहीं पर चौक छुई, खड़िया और गेरू से भी बनाए जाते हैं।
आजकल पत्थर के रंगीन चूर्ण से भी चौक (रंगोली) बनाई जाती है। प्रंगल अवसरों पर बनाये जाने वाले चौक को मंगल चौक कहा जाता है। जन्म, जनेऊ, मुण्डन, विवाह आदि सोलह संस्कारों के चौक बनाने की परम्परा है।
विवाह मण्डप में पण्डित चौक बनाता है। देव प्रबोधिनी एकादशी पर विशेष प्रकार का चौक बनाया जाता है।
लक्ष्मी पूजा में लक्ष्मी चौक बनाया जाता है। प्रत्येक मांगलिक कार्य में गणेश चौक बनाए जाते हैं।
नौरता – नौरता नवरात्रि में कुँवारी कन्याओं द्वारा बनाया जाने वाला भित्ति उत्प्रेषण चित्र है, जो मिट्टी, गेरू, हल्दी, रूई आदि से बनाया जाता है।
मामुलिया – यह गोबर से निर्मित कला का उदाहरण है।
गोवर्धन – बुन्देलखण्ड में प्रत्येक वर्ष दीवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा के अवसर पर गोबर के गोवर्धन बनाए जाते हैं और इसकी पूजा की जाती है। भाई-दूज के दिन-गोबर से दूज पतलिया बनाई जाती है।
मोरते – मोरते विवाह भित्ति रेखांकन है। यह दरवाजे के दोनों ओर दीवार पर बनाए जाते हैं। पुतरी की आकृति प्रमुख होती है। इसी जगह दूल्हा-दुल्हन हल्दी के थापे लगाते हैं।
बघेली लोक चित्रकला
बघेली लोक चित्र अपनी पृथक पहचान रखते हैं। यहाँ हल्दी, अष्टे, चावल से लगभग प्रतिदिन चित्र उकेरे जाते हैं। यहाँ न सिर्फ भूमि और दीवार पर रंगों से चित्रांकन किया जाता है, अपितु दीवार को खोदकर भी चित्र बनाये जाते हैं।
कोहवर चित्र विवाह के अवसर पर बनाया जाता है जिसकी नवयुगल पूजा करता है।
कोयले व तिल्ली के तेल से दीवार पर तिलंगा चित्र बनाया जाता है।
छाटी चित्र शिशु जन्म के 6वें दिन कोहवर की भाँति बनाया जाता है।
जनजातियों की चित्रकला का विशेष महत्व है। राज्य की मोंड, भील, बैगा, कोरकू जनजातियों में शरीर पर विभिन्न आकृतियाँ उकेरी जाती हैं।
ये अपने बर्तनों तथा दीवारों पर भी चित्रकारी करते हैं। विशेषकर नोक दोरा गोडों में विशेष प्रचलित है।